भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले को लेकर गहरी नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि भारत में ऐसा लोकतंत्र कभी कल्पना में भी नहीं था, जहां न्यायाधीश कानून बनाएंगे, कार्यपालिका की जिम्मेदारी निभाएंगे और ‘सुपर संसद’ की तरह व्यवहार करेंगे। उनका यह बयान न सिर्फ सत्ता और न्यायपालिका के बीच जारी तनाव को उजागर करता है, बल्कि पूरे देश में एक नई संवैधानिक बहस को जन्म दे रहा है।
‘सुपर संसद’ बनने की ओर न्यायपालिका?
धनखड़ ने यह टिप्पणी राज्यसभा इंटर्नशिप कार्यक्रम के समापन समारोह में की। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला लेने की समयसीमा तय की गई है। उपराष्ट्रपति ने कहा, “हमने कभी कल्पना नहीं की थी कि राष्ट्रपति से समयबद्ध निर्णय की अपेक्षा की जाएगी, और यदि वे तय समय में फैसला नहीं लेंगे, तो कानून बन जाएगा।”
धारा 142 को बताया ‘24×7 परमाणु मिसाइल’
धनखड़ ने जजों की विधायी भूमिका और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप पर चिंता जताई। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को न्यायपालिका के लिए “24 घंटे उपलब्ध परमाणु मिसाइल” बताया, जो दर्शाता है कि वे न्यायपालिका की असीम शक्तियों को लेकर कितने चिंतित हैं।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
दरअसल, 8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इसमें कहा गया कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को उस पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। कोर्ट ने संविधान की व्याख्या करते हुए कहा कि भले ही समयसीमा का जिक्र न हो, फिर भी “उचित समय” के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए।
ज्यूडिशियल ओवररीच या संवैधानिक संरक्षण?
धनखड़ के तीखे शब्दों से यह सवाल उठने लगा है कि क्या भारतीय न्यायपालिका अपने तय दायरे से बाहर जाकर विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप कर रही है? या फिर यह हस्तक्षेप संविधान की मूल भावना को संरक्षित करने की दिशा में न्यायपालिका की जिम्मेदारी है?
लोकतंत्र के स्तंभों के बीच टकराव
भारत का संविधान तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच शक्तियों के बंटवारे और संतुलन की व्यवस्था करता है। लेकिन हाल के घटनाक्रम दिखाते हैं कि इन संस्थाओं के बीच टकराव और असहमति की स्थितियां भी उभर रही हैं।
धनखड़ का बयान: बहस की शुरुआत या टकराव की चेतावनी?
उपराष्ट्रपति का यह बयान केवल आलोचना नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक ढांचे में शक्ति संतुलन की पुनर्परिभाषा का संकेत भी हो सकता है। एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की यह टिप्पणी पूरी व्यवस्था को आईना दिखाने वाली है।
निष्कर्ष
चाहे इसे ज्यूडिशियल एक्टिविज्म कहा जाए या ओवररीच, उपराष्ट्रपति धनखड़ के इस बयान ने निश्चित रूप से न्यायपालिका बनाम अन्य संवैधानिक संस्थाओं की भूमिकाओं और सीमाओं को लेकर एक गहन बहस छेड़ दी है। यह केवल एक संवैधानिक विवाद नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दिशा तय करने वाला मुद्दा बन सकता है।


