🕒 Published 2 hours ago (5:06 PM)
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली।उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले की हर्षिल घाटी स्थित धराली गांव में मंगलवार को एक अप्रत्याशित प्राकृतिक हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। गंगोत्री यात्रा मार्ग पर स्थित इस पहाड़ी गांव में बादल फटने के कारण भयंकर बाढ़ आई, जिसने पूरे क्षेत्र को तबाही की चपेट में ले लिया। खीरगंगा नाले में आई तेज बाढ़ ने गांव को घेर लिया, जिससे कई घर तबाह हो गए और होटल बह गए। अब तक पांच लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है, जबकि कई अन्य लापता बताए जा रहे हैं। राहत और बचाव कार्य तेजी से चल रहा है, लेकिन हर तरफ मातम और सन्नाटा पसरा है।
पर्यटन और सेब उत्पादन से चलता था गांव
धराली गांव समुद्र तल से करीब नौ हजार फीट की ऊंचाई पर बसा है। यह गांव गंगोत्री धाम की तीर्थयात्रा करने वालों के लिए एक जरूरी पड़ाव माना जाता है। सुंदर प्राकृतिक नजारों और हरियाली के कारण यह इलाका देश-विदेश के पर्यटकों में लोकप्रिय है। यहां पर सेब की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है, खासकर रेड डिलीशियस और गोल्डन सेब की मांग बहुत अधिक रहती है।
सेब की खेती इस गांव की आर्थिक नींव मानी जाती है। यहां के अधिकांश परिवारों की रोज़ी-रोटी इसी पर निर्भर है। हर साल हजारों मीट्रिक टन सेब की उपज होती है, जिससे स्थानीय किसानों को करोड़ों रुपये की कमाई होती है। लेकिन इस बार की बाढ़ ने इन बागानों को भी नहीं बख्शा। मलबे और पानी के चलते सैकड़ों पेड़ नष्ट हो गए और खेतों को भारी नुकसान हुआ।
गरीबी से खुशहाली तक का लंबा सफर
धराली और आसपास के क्षेत्रों ने वह समय भी देखा है जब लोग जरूरत की चीजों के लिए संघर्ष करते थे। भारत-चीन युद्ध के बाद इस सीमावर्ती क्षेत्र में व्यापारिक रास्ते बंद हो गए, जिससे आजीविका पर गहरा असर पड़ा। लेकिन समय के साथ गांव के लोगों ने सेब की खेती को अपनाया और मेहनत से इसे आय का मजबूत जरिया बना लिया।
आज यहां 10 हजार हेक्टेयर में फैले सेब के बागान हैं, जिनसे हर साल करीब 20 हजार मीट्रिक टन सेब निकलता है। इस पूरे क्षेत्र से हर साल करीब 1.5 लाख पेटियां बाजारों तक पहुंचती हैं, जिससे 10 करोड़ रुपये तक का कारोबार होता है। एक सामान्य किसान भी सालाना लाखों की कमाई करता है, जबकि कुछ परिवारों की आय 20 से 25 लाख रुपये तक जाती है।
पुराने व्यापार का इतिहास भी समृद्ध रहा है
स्थानीय बुज़ुर्ग बताते हैं कि 1962 से पहले लोग ऊनी कपड़ों और पशुपालन के माध्यम से आजीविका चलाते थे। उस समय तिब्बत के ताकलाकोट के साथ व्यापारिक संबंध थे, लेकिन युद्ध के बाद वह रास्ता पूरी तरह बंद हो गया। इससे क्षेत्र की आर्थिक स्थिति डगमगा गई।
सेना की मदद से शुरू हुआ बदलाव
1978 में भी इस घाटी में एक भीषण बाढ़ आई थी, लेकिन उसके बाद कुछ किसानों ने धीरे-धीरे सेब की खेती शुरू की। इसी दौरान सेना ने एक किसान से बड़ी मात्रा में सेब खरीदे, जिससे गांव में यह संदेश गया कि यह व्यवसाय लाभदायक हो सकता है। तभी से सेब की खेती को लोगों ने गंभीरता से अपनाया और आज यह क्षेत्र राज्य के समृद्ध इलाकों में शामिल है।
अब यहां के कई परिवार सेब चिप्स बनाने की मशीनों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। शिक्षा और जीवनशैली में भी सुधार आया है। लेकिन ताज़ा आपदा ने इस प्रगति को अचानक गहरा झटका दे दिया है।
अब सवाल यह उठता है कि…
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क्या पहाड़ी इलाकों में हो रहे असंतुलित निर्माण और टूरिज्म इस तरह की आपदाओं को बढ़ावा दे रहे हैं?
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क्या प्रशासन भविष्य में ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए तैयारी करेगा?
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क्या पीड़ितों का समय पर पुनर्वास सुनिश्चित किया जाएगा?
धराली गांव आज सिर्फ एक आपदा का शिकार नहीं है, यह उस पूरे मॉडल की कहानी है जहां कड़ी मेहनत से पहाड़ के लोगों ने खुशहाली लिखी थी — जिसे कुछ ही पलों में कुदरत ने छीन लिया।