🕒 Published 3 weeks ago (2:18 PM)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया है कि विवाह संबंधी मामलों में पति या पत्नी द्वारा गुप्त रूप से की गई बातचीत की रिकॉर्डिंग अब न्यायालय में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। यह फैसला पारिवारिक विवादों में न्याय की प्रक्रिया को अधिक सटीक और तकनीकी रूप से उन्नत बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
क्या था मामला?
एक तलाक संबंधी मामले में पति ने अपनी पत्नी के साथ टेलीफोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग अदालत में क्रूरता के आरोपों को साबित करने के लिए प्रस्तुत की थी। पारिवारिक अदालत ने इसे मंजूरी दी, लेकिन पत्नी ने इस आदेश को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। उसका कहना था कि इस प्रकार की रिकॉर्डिंग उसकी अनुमति के बिना की गई, और यह उसकी निजता के मौलिक अधिकार का हनन है।
हाईकोर्ट ने पत्नी की बात मानते हुए पारिवारिक अदालत का फैसला पलट दिया और कहा कि ऐसे प्रमाणों को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह स्पष्ट नहीं होता कि बातचीत किस परिस्थिति में हुई थी, और इसे कैसे उकसाया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
मामला जब सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, तो न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने गहराई से इस पर विचार किया। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि यदि किसी दंपत्ति के बीच संबंध इतने तनावपूर्ण हो चुके हैं कि उनमें आपसी निगरानी की नौबत आ गई है, तो यह खुद उस रिश्ते की टूटन का प्रमाण है। ऐसे मामलों में, तकनीकी माध्यमों से प्राप्त प्रमाणों को नकारना न्याय की अवहेलना होगी।
अदालत ने माना कि गुप्त रूप से की गई रिकॉर्डिंग, जब तक वह असली और छेड़छाड़ रहित हो, विवाह संबंधी मुकदमों में विशेष रूप से मानसिक प्रताड़ना जैसे मुद्दों को समझने में सहायक हो सकती है। अदालत ने यह भी कहा कि निजता का अधिकार पूर्ण नहीं है, और उसे न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता के साथ संतुलित करना होगा।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 का संदर्भ
अधिवक्ता की ओर से प्रस्तुत दलील में कहा गया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122, सामान्य परिस्थितियों में पति-पत्नी की निजी बातचीत को गोपनीय मानती है, लेकिन वैवाहिक विवादों की सुनवाई के समय यह गोपनीयता समाप्त हो सकती है। कोर्ट ने इस दलील को स्वीकार करते हुए कहा कि जहां विवाह स्वयं न्यायिक जांच के दायरे में आ जाए, वहां गोपनीय संवादों की रक्षा नहीं की जा सकती।
टेक्नोलॉजी और परिवार न्यायालय
कोर्ट ने माना कि आज के डिजिटल युग में जब ज्यादातर संवाद इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से हो रहे हैं, ऐसे में तकनीकी प्रमाणों की भूमिका बढ़ गई है। पति-पत्नी के बीच संवाद अब केवल चार दीवारों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि रिकॉर्ड किए गए ऑडियो और वीडियो के रूप में अदालतों में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। बशर्ते कि ऐसे प्रमाणों की सत्यता की जांच की जाए, अदालतों को उन्हें पूरी गंभीरता से लेना चाहिए।
मानसिक प्रताड़ना और गोपनीयता के बीच संतुलन
मानसिक क्रूरता को साबित करना हमेशा मुश्किल होता है क्योंकि इसके पीछे कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं होता। ऐसे में, बातचीत की रिकॉर्डिंग कभी-कभी इकलौता सशक्त प्रमाण बनती है। हालांकि, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे साक्ष्यों को आंख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए—हर मामले में उनकी वैधता की जांच आवश्यक है।
भविष्य के मुकदमों पर प्रभाव
इस फैसले से यह संकेत मिलता है कि न्यायालय अब पारिवारिक विवादों में डिजिटल सबूतों को अधिक महत्व देंगे। यह तलाक, घरेलू हिंसा, और अन्य विवाह संबंधी मुकदमों में निर्णय प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी और सटीक बना सकता है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक नजीर बन गया है, जो बताता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था समय और तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है। यह न केवल डिजिटल युग में निजता और न्याय के बीच संतुलन स्थापित करता है, बल्कि पारिवारिक विवादों में न्याय पाने के मार्ग को भी आसान करता है।