Vat Savitri Vrat
आज है पूर्णमासी ज्येष्ठ की। आज के दिन गंगा स्नान के साथ वट सावित्री और सत्यनारायण व्रत और पूजा का भी विशेष महत्व है । इस बार ज्येष्ठ पूर्णमासी 10 और 11 जून दोनों ही दिन मनाई जा रही है। वट सावित्री का व्रत सुहागिनें अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती हैं। इस व्रत में सत्यवान सावित्री की कथा का श्रवण जरूर किया जाता है कहा जाता है कि यह कथा सुनने के बाद ही पूजा पूरी मानी जाती है।
पूर्णमासी का व्रत भगवान सत्यनारायण की पूजा का भी है। उत्तर भारत में दोनों व्रतों का बहुत महत्व है। वट सावित्री का व्रत ज्येष्ठ अमावस्या को भी रखा जाता है। यूं तो सत्यनारायण का व्रत सभी कार्यों के मंगल के लिए रखा जाता है लेकिन विशेषकर व्रत को महिलाएं पुत्र प्राप्ति के लिए रखती हैं।
वट सावित्री के व्रत की कथा कुछ इस प्रकार है। लोक कथाओं के अनुसार मद्र देश का एक राजा था जिसका नाम अश्वपति था वह बहुत ही धर्मात्मा था लेकिन कोई संतान नहीं थी । संतान प्राप्ति हेतू राजा निरंतर हवन यज्ञ और पूजा पाठ करवाता रहता था। इन सभी शुभ कार्यों के प्रभाव से राजा के घर एक कन्या ने जन्म लिया । राजा ने इस कन्या का सावित्री नाम रख दिया।
जब पुत्री बड़ी हुई तो राजा को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। राजा ने अपनी पुत्री के विवाह के प्रयास शुरू कर दिए । लेकिन सावित्री ने कहा कि वह अपना वर स्वयं ढूंढेगी। इसी के चलते एक बार सावित्री जंगल में जा रही थी तो उसने जंगल में एक लकड़हारे को देखा। वह लकड़हारा किसी युवराज से कम नहीं लग रहा था। सावित्री को लकड़हारा पसंद आ गया और वह वापिस महल लौट आई और अपने पिता को अपना फैसला सुना दिया जंगल में एक लकड़हारा है वह उसी के साथ विवाह के बंधन नें बंधेगी। राजा ने अपनी बेटी को लाख समझाया लेकिन वह अपनी बात से टस से मस नहीं हुई । आखिरकार राजा को अपनी बेटी की जिद से सामने झुकना पड़ा। और लकड़हारे से रिश्ते के लिए तैयार हो गए।
जब सावित्री के विवाह की बात चल रही थी तभी वहां नारद मुनि आ गए। उन्होंने राजा से कहा कि राजन् जिस युवक से आप बेटी की शादी करना चाहते हैं वह शादी के बाद सिर्फ 1 साल ही जीवित रहेगा। यह सुनने के बाद राजा गंभीर चिंता में डूब गया लेकिन सावित्री अपने फैसले पर अडिग रही। राजा नें लकड़हारे के साथ सावित्री का विवाह कर दिया।
विवाह के पश्चात सावित्री अपने सास-ससुर और पति की सेवा में ही लग गई । इस दौरान वक्त गुजरता चला गया । सावित्री समय की गणना करती रही। आखिर वह दिन भी आ गई जब सत्यवान की मृत्यु की भविष्यवाणी की गई। सावित्री ने उस दिन अपने पति के साथ जंगल में जाने की बात कही लेकिन उसके पति ने इंकार कर दिया की वह उसे जंगल में लकड़ी काटने के लिए नहीं ले जा सकता परंतु सावित्री ने साथ जाने का हठ पकड़ लिया। सत्यवान ने आखिरकार सावित्री की बात मान ली और उसे जंगल में ले गया। इस दिन सावित्री सत्यवान के साथ वन गई थी और सत्यवान के साथ लकड़ी काटने लगी।
लकड़ी काटने के लिए जैसे ही सत्यवान पेड़ पर चढ़ने लगा, तो उसके सिर में दर्द और असहनीय पीड़ा होने लगी। इसी के कारण सत्यवान सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। काल ने तो आना ही था सो आ गया । कहते है कि सावित्री का तप इतना अधिक था कि यमराज उसकी इजाजत के बिना सत्यवान के प्राणों को नहीं ले जा सकते थे। थोड़ी देर बाद यमराज साक्षातर वहां आकर खड़े हो गए। इसके बाद यमराज सत्यवान की आत्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े तो सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी।
यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने वहां तक अपने पति का साथ दे दिया परंतु अब तुम लौट जाओ’.. यमराज की बात सुनकर सावित्री ने उत्तर दिया और कहा कि ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए. यही सनातन सत्य है’।सावित्री का यह जवाब सुनकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए। यमराज ने सत्यवान की प्राणों के बदले सावित्री से तीन वरदान मांगने को कहा। इस पर सावित्री ने यमराज की बात को मान लिया और यमराज से 3 वरदान मांग लिए।
इसके बाद सावित्री ने यमराज से कहा कि मैं पतिव्रता स्त्री हूं जब मेरे पति ही जिंदा नहीं रहेंगे तो मुझे कैसे पुत्र की प्राप्ति होगी। यमराज अपने ही वचनों में बंध गए और सत्यवान के प्राणों को लौटा दिया। यह कथा हमें इस बात की शिक्षा देती है कि एक पतिव्रता स्त्री में कितनी ताकत होती है वह अपने पति को यमराज से भी वापस ले लेती ।
इस व्रत को वट सावित्री का व्रत क्यों कहा जाता है इसके पीछे की कहानी यह है कि जब यमराज सत्यवान की आत्मा को लेकर चले गए थे तब सत्यवान का शरीर वट वृक्ष की छाया में जमीन पर था इसलिए इस दिन वट वृक्ष की पूजा की जाती है और इस व्रत का नाम वट व सावित्री के पतिव्रता धर्म के कारण वट सावित्री पड़ा।
बता दें कि सत्यवान कोई आम लकड़हारा नहीं था वह राजा द्युमत्सेन का पुत्र था । राजा द्युमत्सेन का राजपाट छीन लिया गया था इस कारण उन्हें जंगल में रहना पड़ा रहा था । इसी दौरान ही सत्यवान के माता पिता की आंखों की रोशनी चली गई थी । ये तीनों ही जंगल से लकड़ियां काटकर और उन्हें बेचकर गुजर बसर कर रहे थे सावित्री के यमराज से वरदान मांगने के बाद राजा द्युमत्सेन को अपना राजपाट भी वापस मिल गया।
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