🕒 Published 1 month ago (12:48 PM)
इटावा, यूपी। Etawah Brahmin-Yadav dispute: 21 जून को उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले में ब्राह्मण और यादव समुदायों के बीच हुए विवाद ने अब सियासी रंग ले लिया है। यह विवाद धार्मिक आयोजन के दौरान हुआ, लेकिन इसकी आंच अब जातीय टकराव और राजनीतिक बयानबाज़ी तक पहुंच गई है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव इस मुद्दे पर खुलकर सामने आए हैं, वहीं भाजपा और अन्य दलों ने चुप्पी साध रखी है। इधर, संतों के बीच भी बयानबाज़ी शुरू हो गई है।
आखिर इटावा ही क्यों बना विवाद का केंद्र?
उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों की तुलना में इटावा में ब्राह्मण और यादव दोनों की आबादी करीब-करीब बराबर है और दोनों समुदायों की आर्थिक स्थिति और सामाजिक प्रभाव भी लगभग समान है। यही कारण है कि यहां लंबे समय से कोई बड़ा जातीय टकराव नहीं देखा गया। जबकि पूर्वांचल के आज़मगढ़, गोरखपुर या फैज़ाबाद जैसे इलाकों में जहां जातिवाद की जड़ें गहरी हैं, वहां ऐसी घटनाएं कम देखने को मिलती हैं। इटावा में शिक्षा का स्तर भी अन्य जिलों से बेहतर है, लेकिन इसके बावजूद यहां हुआ यह विवाद कई सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को उजागर करता है।
धार्मिक आयोजन से शुरू हुआ बवाल
दादरपुर गांव में आयोजित एक भागवत कथा में यादव समाज के एक कथावाचक को बुलाया गया था। कथित तौर पर ब्राह्मण समाज के कुछ लोगों ने इसका विरोध किया, जिस पर विवाद बढ़ गया। इस मसले पर ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने भी प्रतिक्रिया दी और कहा कि “सकाम कथा” में ब्राह्मण होना ज़रूरी है, जबकि “निष्काम कथा” में कोई भी कथा कह सकता है। हालांकि बाद में उन्होंने यह भी माना कि इस विवाद को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है।
ब्राह्मणों की राजनीति में गिरती हैसियत
एक ज़माने में देश भर की राजनीति में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। आज़ादी के बाद यूपी, बिहार, पंजाब, ओडिशा से लेकर मद्रास तक ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। लेकिन 1990 के बाद से राजनीति में ब्राह्मणों की भागीदारी और प्रभाव लगातार घटा है। न सिर्फ उन्हें टिकट मिलना मुश्किल हो गया है, बल्कि शीर्ष नेतृत्व में भी उनकी हिस्सेदारी न के बराबर रह गई है। टॉप सरकारी नौकरियों में भी ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व घटा है। इसके कारण वे खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं।
इटावा के ‘चौधरी ब्राह्मण’ और यादवों की टकराहट
इटावा, मैनपुरी, फर्रुख़ाबाद और एटा जैसे इलाकों में कभी ब्राह्मणों का राजनीतिक प्रभाव बहुत अधिक था। यहां के “चौधरी ब्राह्मण” खुद को अयाचक, समृद्ध और शक्तिशाली मानते थे। लेकिन 1990 में जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, तब से यादवों का दबदबा बढ़ा और ब्राह्मणों की स्थिति कमजोर होती चली गई। उसी दौर से ब्राह्मण बनाम यादव की खाई गहराने लगी।
अखिलेश यादव का पलटवार
इटावा के इस विवाद पर अखिलेश यादव ने तीखा बयान दिया। उन्होंने कहा कि बड़े-बड़े कथावाचक भारी फीस लेते हैं, इसलिए अब ऐसे कथा वाचकों को बुलाया जाएगा जो निशुल्क कथा पढ़ें। उन्होंने परोक्ष रूप से विवाद में आए कथावाचक यादव का पक्ष लिया और बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री पर 50 लाख रुपये फीस लेने का आरोप भी लगाया। जवाब में धीरेंद्र शास्त्री ने चुनौती दी कि अखिलेश यादव अपने आरोप साबित करें। उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी व्यक्ति भागवत कथा सुना सकता है, जाति की इसमें कोई बाध्यता नहीं है।
सियासत की पटकथा पहले ही तैयार थी?
विश्लेषकों का मानना है कि इस विवाद की पटकथा पहले ही तैयार कर ली गई थी। इटावा जैसे सामाजिक रूप से संतुलित जिले में ऐसा विवाद इसलिए भड़काया गया ताकि जातिगत ध्रुवीकरण हो सके। खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद ब्राह्मण समाज में बढ़ती नाराज़गी को विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों अपने-अपने हिसाब से भुनाना चाहते हैं।
सवर्ण मतदाता की राजनीतिक अनिश्चितता
2024 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने PDA (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) मॉडल को सामने रखा, जिसमें सवर्णों खासकर ब्राह्मणों की बात नहीं की गई। इससे ब्राह्मणों की राजनीतिक स्थिति और अधिक अस्थिर हो गई। भाजपा से उन्हें भागीदारी की उम्मीद थी, लेकिन सत्ता में वे हाशिये पर ही रहे। कांग्रेस, बसपा और अन्य दलों में भी उनकी उपस्थिति सीमित रह गई है।
बिहार ने लिया सबक, यूपी में सुलग रहा विवाद
बिहार में तेजस्वी यादव और लालू यादव इस मुद्दे पर चुप हैं क्योंकि वहां ब्राह्मणों की आबादी 3.85% है और कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहता। लेकिन उत्तर प्रदेश में यह संतुलन नहीं दिखता। यहां जाति की राजनीति अधिक आक्रामक रूप में सामने आती है, और हर छोटी बात को सियासी रंग देना आम हो चला है।
जाति से निकली चिंगारी सियासत की लपट में
इटावा में कथावाचन को लेकर शुरू हुआ विवाद अब जातिगत तनाव और सियासी बयानबाज़ी का माध्यम बन गया है। यह दिखाता है कि कैसे धर्म, जाति और राजनीति का त्रिकोण किसी भी समाज में बवाल खड़ा कर सकता है। जरूरत इस बात की है कि सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए संवेदनशील मुद्दों को सियासी हथियार नहीं बनाया जाए — वरना ये आग हर किसी को झुलसा सकती है।