देहरादून. मंगलवार को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में फटे बादल ने एक बार फिर पूरे देश का ध्यान इस व्यापक संकट की ओर खींचा। इस प्राकृतिक आपदा में कम से कम 15 लोगों की मौत हो गई। मानसून के इस सीजन में पहले भी इन क्षेत्रों में कई बार बादल फटने की घटनाएं हुई हैं, जिनमें भूस्खलन, नदियों में उफान, कीचड़ का जमाव और बाढ़ जैसी तबाही देखी गई।
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हिमालय में बढ़ती आपदा की गंभीरता
हालांकि मानसून में हिमालयी क्षेत्र में भारी वर्षा असामान्य नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी तीव्रता और आवृत्ति में बढ़ोतरी चिंताजनक है। यह केवल प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि हिमालय की भौगोलिक बनावट और जलवायु परिवर्तन का परिणाम भी है। बंगाल की खाड़ी में बने कम दबाव वाले सिस्टम सामान्य से अधिक उत्तर की ओर बढ़े, जिससे उत्तर-पश्चिमी भारत के पर्वतीय इलाकों में असामान्य वर्षा हुई।
रिकॉर्ड बारिश और विनाशकारी प्रभाव
अगस्त में इस क्षेत्र में 34 फीसदी अधिक बारिश दर्ज की गई, जबकि पूरे मानसून में 30 फीसदी से अधिक अधिशेष रहा। पश्चिमी हिमालय में यह अत्यधिक वर्षा भूस्खलन, कीचड़ बहाव और नदियों में उफान जैसी आपदाओं को जन्म देती है। उदाहरण के तौर पर 27 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के ऊधमपुर में 24 घंटे में 630 मिमी बारिश दर्ज हुई, जो गुजरात के राजकोट की सालभर की औसत वर्षा के बराबर है।
पहाड़ी क्षेत्रों की संवेदनशीलता
हिमालय में तीव्र वर्षा समतल इलाकों की तुलना में अधिक विनाशकारी होती है। ऊंचाई और ढलानों के कारण पानी तेज बहाव में बदलता है, मिट्टी और ढीली चट्टानों को बहाता है और नदियों के मार्ग अवरुद्ध कर देता है। अंधाधुंध निर्माण, वनों की कटाई और सड़कों का निर्माण इन घटनाओं को और गंभीर बनाता है।
जलवायु परिवर्तन और भविष्य की चेतावनी
वैश्विक तापमान वृद्धि और आर्कटिक समुद्री बर्फ के पिघलने से वायुमंडल में अधिक नमी संग्रहित होती है, जिससे वर्षा और तूफान और तीव्र हो जाते हैं। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि भविष्य में हिमालयी क्षेत्रों में चरम वर्षा और लंबे सूखे के दौर अधिक आम हो सकते हैं।
सरकार को तत्काल आपदा प्रबंधन, पूर्व चेतावनी प्रणालियों और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना होगा। हिमालय की भौगोलिक संवेदनशीलता और जलवायु परिवर्तन के मिलकर बनाए इस खतरे को नजरअंदाज करना भारी नुकसान का कारण बन सकता है।
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