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ट्रेन से घर की ओर: छठ पूजा में लौटते प्रवासी बिहारी और पलायन की पीड़ा

दीपावली के बाद अब प्रवासी बिहारी अपने-अपने कार्यस्थलों, ऑफिसों, दुकानों और फैक्ट्रियों से छठ पूजा के लिए अपने गांव लौट रहे हैं। कोई पटना जा रहा है, कोई सासाराम, कोई दरभंगा, कोई पूर्णिया। यह महज सफर नहीं, भावनाओं का समंदर है, जो साल भर की थकान को धो डालता है।

हर कोई कहीं न कहीं से वापस अपने गांव की ओर निकल पड़ा है। कोई कहता है – “माई छठ करती है”, कोई कहता है – “बड़की माई के बिना छठ नहीं होता”। किसी के मन में मन्नत है कि नौकरी में तरक्की हो, तो किसी ने शहर में मकान खरीदा है, छठ पर सूरज को अर्घ्य देने का वादा कर के।

लेकिन इस लौटने के पीछे एक स्थायी पीड़ा छुपी है – पलायन।

हमारे हिस्से में क्यों पलायन?

बिहार के शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जहां परिवार का कोई सदस्य बाहर रोजगार के लिए न गया हो। चाहे वह बड़ा शहर हो या छोटा कस्बा, बिहार का हर कोना खाली होता जा रहा है।

नेताओं की खामोशी, विकास की रफ्तार और रोज़गार की कमी, ये सब मिलकर बिहार को बस एक ट्रांजिट ज़ोन बना चुके हैं। लोग यहां से निकलते हैं – नोएडा, सूरत, बेंगलुरु, मुंबई या पंजाब के किसी कारखाने में काम करने।

वो 12 हजार ट्रेनें फिर भरेंगी भीड़

कोरोना काल की याद ताज़ा है, जब 12 हजार से ज़्यादा स्पेशल ट्रेनें प्रवासियों को वापस लाईं थीं। अब वही ट्रेनें उन्हें फिर से अपने रोजगार के शहरों की ओर ले जाएंगी।

छठ पूजा के बाद कुछ लोग गांव में रुकेंगे – इस बार चुनाव भी है। लेकिन यह रुकना भी अस्थायी है। फिर से वही बैग, वही झोला, वही ट्रेन और वही दूरियां।

राजा बनने की ख्वाहिश, कब पूरी होगी?

एक बड़ा सवाल यह है कि हम अपनी ही ज़मीन पर कब आत्मनिर्भर बनेंगे? जब मॉरीशस में भेजे गए मजदूर आज वहां की सत्ता चला रहे हैं, तो हम क्यों नहीं अपनी मिट्टी में अपनी पहचान बना पा रहे?

हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों और मुगलों के ज़माने में मजदूरी की, और वहां की ज़मीन ने उन्हें गले लगाया। लेकिन हम आज भी एक ऐसी मिट्टी में जन्म लेकर पराए शहरों में अपनी पहचान तलाशते हैं, जो हमारी नहीं होती।

पलायन की अगली पीढ़ी

नई जगह की मिट्टी कभी आसानी से अपनाती नहीं। एक पूरी पीढ़ी संघर्ष करती है – किराए के कमरों, बदले खानपान, अलग भाषा और संस्कृति में।

पर अगली पीढ़ी ही उस मिट्टी में खुद को स्थापित कर पाती है। लेकिन वह पहली पीढ़ी जो सब कुछ छोड़ कर चल देती है, उसका दर्द कौन देखता है?

छठ का उजाला, फिर वही अंधेरा

छठ पर्व के साथ उम्मीदें लौटती हैं, रिश्ते लौटते हैं, गांव की गलियां जीवंत हो जाती हैं। लेकिन यह लौटना भी अस्थायी है।

हर साल यही सवाल उठता है – क्या कभी लौट कर यहीं बस पाएंगे? क्या अपने बच्चों को यह कह पाएंगे कि यहीं रहो, यहीं पढ़ो, यहीं कमाओ?

इस छठ पर भी कई आंखों में यही सवाल है – हम अपनी ही मिट्टी में राजा कब बनेंगे?

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