Bhagwan Birsa Munda : आदिवासी समाज के महानायक को पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि

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By Sunita Singh

🕒 Published 6 days ago (12:55 PM)

नई दिल्ली डेस्कः धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की पुण्यतिथि आज श्रदापूर्वक मनाई जा रही है। महज 25 वर्ष की आयु में ही धरती आबा ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ऐसा संघर्ष किया कि आज भी उनका नाम आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। न केवल झारखंड बल्कि पूरे देश में उन्हें धरती आबा के नाम से पूजा जाता है।Bhagwan Birsa Munda भारत के महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। बता दें कि जिस समय दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी रंगभेद के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे, वहीं उसी समय भारत में बिरसा मुंडा ने देश की स्वतंत्रता के लिए ‘उलगुलान’ (महाविद्रोह) का नेतृत्व किया।

Ulgulan movement की शुरूआत

धरती आबा Bhagwan Birsa Munda का जन्म 15 नवंबर 1875 को गांव उलिहातू जो झारखंड के जिले खूंटी के अंतर्गत आता है में हुआ था बिरसा मुंडा का ठीक ठाक था । शुरूआती शिक्षा के पश्चात बिरसा मुंडा ने चाईबासा मिशन स्कूल से शिक्षा हासिल की । पढ़ाई के बाद बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज को एकजुट करना शुरू कर दिया और उलगुलान (महाविद्रोह) शुरू किया।

Bhagwan Birsa Munda की लोकप्रियता से डर गए थे अंग्रेज

Bhagwan Birsa Munda की लोकप्रियता इतनी बढ गई थी अंग्रेज बिरसा के नाम से खौफ खाने लगे थे । इसी की वजह से अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा पर 500 रूपये का ईनाम रख दिया। उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि अंग्रेजों ने उन पर 500 रुपये का इनाम घोषित कर दिया। बिरसा मुंडा की पहली बार गिरफ्तारी 1895 में हुई थी। और साल 1900 में अंग्रेजों ने पुन बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया। और 9 जून सन् 1900 को रांची जेल में इस महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक ने आखिरी सांस ली।

Dombari Buru Massacre

शहादत की धरती डोंबारी बुरू पहाड़ी जो कि खूंटी जिले में है। साल था 1900 जहां 9 जनवरी को अंग्रेजों और बिरसा मुंडा के बीच लड़ाई हुई । जिसमें अंग्रेजों की अंधाधुंध फायरिंग की बिरसा मुंडा की अंग्रेजों के साथ यह आखिरी जंग थी। डोंबारी बुरू पहाड़ी की यह घटना को जालियांवाला बाग के नरसंहार से पहले का सबसे बड़ा नरसंहार माना जाता है। हालांकि, Bhagwan Birsa Munda इस हमले में बच निकले थे। इस पहाड़ी पर 110 फीट ऊंचा स्मारक स्तंभ और बिरसा मुंडा की मूर्ति बनी हुई है। 9 जनवरी को यहां हर साल भारी मेला लगता है।

जमीन और वन अधिकारों के लिए संघर्ष

बिरसा मुंडा ने साल 1894 में जमीन और वन अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू किया। उनका मकसद आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन पर अधिकार दिलाना था। यह आंदोलन अंग्रेजी सत्ता को हिलाकर रख देने वाला साबित हुआ।

बिरसाइत धर्म की स्थापना

बिरसा मुंडा ने जब देखा कि ईसाई मिशनरी आदिवासी संस्कृति को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं तो उनसे रुका नहीं गया और यह देखकर एक नए ‘बिरसाइत धर्म’ की शुरुआत की। इस धर्म में प्रकृति पूजा को महत्व दिया जाता है। बता दें कि आदिवासी समाज में प्रकृति की बहुत ही अहमियत है। इसके अलावा ‘बिरसाइत धर्म’ में मांस-मदिरा जैसे नशे से दूर रहने की शिक्षा दी जाती है।

बिरसा मुंडा अपने 12 शिष्यों के साथ साल 1895 में ‘बिरसाइत धर्म’ का प्रचार-प्रसार शुरू किया गया। सोमा मुंडा को उनका प्रमुख शिष्य बनाया गया। बिरसाइत धर्म के अनुयायी सादा जीवन, सफेद वस्त्र पहनना और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करना जैसे सिद्धांतों का पालन करते हैं।आज भी झारखंड के कई आदिवासी इलाकों में बिरसाइत धर्म के अनुयायी मौजूद हैं।

150वीं जयंती पर डाक टिकट जारी

15 नवंबर 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती पर उनके सम्मान में एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया था। यह कदम Bhagwan Birsa Munda के देश की आजादी में अद्भुत योगदान को मान्यता देने के साथ-साथ आदिवासी समाज की विरासत को भी संरक्षित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है।

निष्कर्ष

बिरसा मुंडा ने अपने छोटे से जीवन में इतिहास रच दिया। उनका संघर्ष आज भी प्रेरणा का स्रोत है। 125वीं पुण्यतिथि पर पूरा देश धरती आबा को श्रद्धांजलि दे रहा है।

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