🕒 Published 11 hours ago (3:34 PM)
सनातन धर्म की गहराई और विविधता में स्त्री को हमेशा सम्मान और पूज्यता के साथ देखा गया है। लेकिन जब धर्म की बागडोर कुछ ऐसे लोगों के हाथ में आ जाए, जो खुद ही धर्म की मूल भावना को न समझते हों, तो वे धर्म के नाम पर समाज में भ्रम फैलाते हैं। मथुरा के कथावाचक अनिरुद्धाचार्य और स्वामी प्रेमानंद के हालिया बयानों ने यही किया है।
एक मित्र की बात ने बदली सोच
एक समय बिहार में ‘पकडुआ विवाह’ की घटनाएं सामान्य थीं। ऐसे में एक मित्र से बातचीत के दौरान पता चला कि ऐसे विवाह के बाद भी अगर विधिवत वैदिक प्रक्रिया से शादी हुई हो, तो उस पत्नी को छोड़ना अधार्मिक और अमानवीय माना जाता है। उस बातचीत से समझ में आया कि धर्म केवल रस्मों और मंत्रों का नाम नहीं, वह जिम्मेदारी और सम्मान की भावना है।
स्त्री कभी अपवित्र नहीं होती
सनातन धर्म की परंपरा में स्त्री को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि हर धार्मिक क्रिया में अनिवार्य माना गया है। गृहस्थ जीवन में पत्नी के बिना कोई भी संस्कार अधूरा होता है, चाहे वह यज्ञ हो या पितृ तर्पण। राम ने लंका विजय के बाद जब रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की, तब रावण ने सीता को पूजा हेतु वहां लाने की जिम्मेदारी निभाई थी।
जब धर्माचार्य ही भूलने लगें धर्म
दुखद यह है कि आज वही लोग जो धर्म के प्रवक्ता हैं, स्त्री की मर्यादा और गरिमा को अपमानित कर रहे हैं। अनिरुद्धाचार्य द्वारा लिव-इन में रहने वाली महिला की तुलना वेश्या से करना या स्वामी प्रेमानंद द्वारा केवल 4% महिलाओं को “पवित्र” बताना, ना केवल महिलाओं का अपमान है बल्कि स्वयं धर्म का भी अपमान है। ऐसे बयान यह दर्शाते हैं कि कुछ धर्माचार्य सनातन की आत्मा से ही अनभिज्ञ हैं।
साध्वी ऋतंभरा भी इसी मानसिकता की शिकार
साध्वी ऋतंभरा का बयान भी इसी श्रेणी में आता है जिसमें उन्होंने रील्स बनाने वाली या आधुनिक वस्त्र पहनने वाली महिलाओं को “गंदी” कह दिया। जब इन बयानों की आलोचना हुई तो इन्होंने अपनी बात को और अधिक आपत्तिजनक तरीके से दोहराया।
सनातन में स्त्री का सर्वोच्च स्थान
हमारा समाज देवी-उपासक रहा है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक देवी की पूजा होती है। नवरात्रि, दशहरा, दीपावली – सभी पर्वों का केंद्र स्त्रीशक्ति रही है। फिर यही समाज यदि स्त्रियों को अपवित्र कहने लगे, तो यह दोहरा व्यवहार और गहरी आत्मविरोधी सोच का संकेत है।
रामायण की सीता और मर्यादा पुरुषोत्तम
वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब सीता से अग्निपरीक्षा ली गई, तो पूरे समाज ने इस पर सवाल उठाया। हनुमान जैसे भक्त की आंखों में आंसू थे। स्वयं राम ने माना कि वह सीता की पवित्रता जानते थे, पर लोकापवाद के भय से अग्निपरीक्षा ली। यह सामाजिक दबाव था, न कि धर्म।
द्वापर युग में कुंती और द्रौपदी का उदाहरण
महाभारत में स्त्रियों की स्वतंत्रता और शक्ति का भिन्न चित्रण मिलता है। कुंती, माद्री और द्रौपदी – तीनों के उदाहरण यह बताते हैं कि स्त्री की पवित्रता की परिभाषाएं समय, परिस्थिति और समाज के अनुसार बदलती रहीं, पर वह कभी भी केवल यौनिकता से नहीं जुड़ी।
मध्यकाल में गढ़े गए पवित्रता के रूपक
भारत के मध्यकाल में जब विदेशी हमले हुए, तब स्त्री की पवित्रता की रक्षा को धर्म बना दिया गया। पर्दा, सती प्रथा और जौहर को स्त्री की महिमा के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसी सोच को आज के कई धर्माचार्य फिर से दोहरा रहे हैं।
क्या धर्माचार्य चरित्र के न्यायाधीश हैं?
अनिरुद्धाचार्य, स्वामी प्रेमानंद या कोई भी धर्माचार्य किस अधिकार से यह तय कर सकते हैं कि कौन पवित्र है और कौन नहीं? धर्म का कार्य चरित्र पर टिप्पणी करना नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना होना चाहिए।
स्त्री की आज़ादी और धर्म की मर्यादा
आज की स्त्री सोचती है, चुनती है, फैसले लेती है। वह क्या पहनेगी, कैसे जिएगी, इसका निर्णय उसी का होगा। धर्म की मर्यादा यही है कि उसे सम्मान और स्वतंत्रता दी जाए, न कि चरित्र प्रमाणपत्र।
धर्म का सार है – सम्मान, न कि अपमान
सनातन धर्म ने सदैव सिखाया है कि स्त्री को देवी का रूप समझो। इसलिए यदि कोई धर्माचार्य महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाता है, तो वह न केवल महिला विरोधी बल्कि धर्मविरोधी भी है। धर्म का अपमान करने वाला कोई भी व्यक्ति चाहे जितना बड़ा भगवा वस्त्र पहन ले, वह धर्म का प्रतिनिधि नहीं हो सकता।