🕒 Published 1 month ago (12:43 PM)
Politics on Three Language Policy: तीन-भाषा नीति यानी थ्री लैंग्वेज पॉलिसी को लेकर देश के कई राज्यों में राजनीति गरमाती जा रही है। तमिलनाडु के बाद अब महाराष्ट्र भी इस बहस का केंद्र बन गया है। यहां सरकार द्वारा हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाए जाने के फैसले के बाद जबरदस्त विरोध हुआ, जिसके बाद आदेश को पहले संशोधित किया गया और अब पूरी तरह वापस ले लिया गया है।
क्या है विवाद की जड़?
हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश जारी कर स्कूलों में मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर अनिवार्य कर दिया था। लेकिन इस फैसले के खिलाफ राज्य में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) और उद्धव ठाकरे की शिवसेना (UBT) खुलकर मैदान में उतर आए।
विरोध बढ़ने के बाद सरकार को पहले हिंदी को वैकल्पिक करने का निर्णय लेना पड़ा और अंततः पूरा आदेश ही वापस ले लिया गया। अब यह मुद्दा राजनीति के केंद्र में आ गया है, और विरोधी दल इसे “स्थानीय अस्मिता की जीत” के रूप में प्रचारित कर रहे हैं।
तमिलनाडु से महाराष्ट्र तक एक जैसी कहानी
थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध केवल महाराष्ट्र में नहीं हुआ है। तमिलनाडु पहले ही इसे सिरे से खारिज कर चुका है। तमिल राजनीति में हिंदी विरोध दशकों पुराना मुद्दा रहा है, जिसे DMK और AIADMK जैसे दलों ने हमेशा प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बनाए रखा है। अब महाराष्ट्र में MNS और शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दल इस मुद्दे को पकड़कर फिर से मराठी अस्मिता की राजनीति को धार देने की कोशिश कर रहे हैं।
5 जुलाई को इन दलों ने विरोध मार्च की घोषणा की थी, लेकिन अब जब सरकार ने आदेश वापस ले लिया है, तो इसे राजनीतिक जीत बताकर “विजय रैली” निकालने की तैयारी हो रही है।
राजनीतिक दलों की अस्मिता की राजनीति
दरअसल, थ्री लैंग्वेज पॉलिसी का विरोध सिर्फ भाषा नहीं, राजनीतिक अस्तित्व और अस्मिता का सवाल बन चुका है। क्षेत्रीय दलों को यह डर है कि अगर हिंदी को एक अनिवार्य विकल्प बनाया गया, तो धीरे-धीरे यह स्थानीय भाषाओं को दबा सकती है।
राज ठाकरे की पार्टी ने तो अपने शुरुआती वर्षों में गैर-मराठी और खासतौर पर हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाकर अपनी पहचान बनाई थी। वहीं, उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी मराठी मानुष की राजनीति को पुनर्जीवित करने के लिए इस मुद्दे को एक मौका मान रही है।
केंद्र सरकार का पक्ष
नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 में थ्री लैंग्वेज पॉलिसी को लचीले स्वरूप में लागू करने की बात कही गई थी। केंद्र सरकार का तर्क है कि इसमें किसी राज्य पर भाषा थोपी नहीं जाएगी। राज्यों को स्वतंत्रता है कि वे कौन-सी तीन भाषाएं चुनते हैं। हालांकि, नीति में यह शर्त जोड़ दी गई है कि इन तीन में से कम से कम दो भारतीय भाषाएं होनी चाहिए।
यही बिंदु विवाद का केंद्र बन गया है, क्योंकि अधिकांश राज्यों में स्थानीय भाषा और अंग्रेजी पहले से पढ़ाई जा रही है। अब तीसरी भारतीय भाषा के तौर पर अक्सर हिंदी ही सामने आती है, जिससे क्षेत्रीय दल इसे “हिंदी थोपने की कोशिश” मान रहे हैं।
क्या थ्री लैंग्वेज पॉलिसी नई है?
नहीं। यह नीति पचास साल से ज्यादा पुरानी है। सबसे पहले 1964-66 के शिक्षा आयोग ने इसका सुझाव दिया था। इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में इसे लागू किया और 1992 में पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने इसमें संशोधन किया था।
तब इसमें मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा, अंग्रेजी और एक अन्य आधुनिक भाषा (भारतीय/यूरोपीय) शामिल थी। लेकिन 2020 की नीति में इसे बदलकर दो भारतीय भाषाओं को अनिवार्य कर दिया गया और अंग्रेजी को विदेशी भाषा की श्रेणी में रखा गया।
थ्री लैंग्वेज पॉलिसी की जड़ें तो शैक्षणिक सुधारों में हैं, लेकिन इसका राजनीतिक असर कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है। भाषा, अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान की राजनीति के दौर में यह नीति अब धीरे-धीरे राज्यों में सियासी हथियार बनती जा रही है।
तमिलनाडु और महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि आने वाले समय में यह मुद्दा और गहराएगा, खासतौर पर उन राज्यों में जहां हिंदी को लेकर संवेदनशीलता पहले से मौजूद है।