छात्रा की गिरफ्तारी पर बॉम्बे हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी – “भविष्य बर्बाद करने पर तुले हैं पुलिस और कॉलेज”

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By Rita Sharma

🕒 Published 2 weeks ago (1:49 PM)

सोशल मीडिया पोस्ट के मामले में पुणे की 19 वर्षीय छात्रा की गिरफ्तारी और कॉलेज से निष्कासन को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट ने सख्त नाराजगी जताई है। कोर्ट ने इस पूरे प्रकरण को ‘छात्रा के भविष्य को बर्बाद करने वाला कदम’ करार देते हुए कहा कि पुलिस और कॉलेज प्रशासन ने जिम्मेदारी से काम नहीं लिया।

यह मामला तब शुरू हुआ जब छात्रा ने ऑपरेशन सिंदूर से जुड़ी एक पोस्ट सोशल मीडिया पर साझा की, जिस पर विवाद हुआ। हालांकि, छात्रा ने दो घंटे के भीतर ही पोस्ट डिलीट कर माफी मांग ली थी। बावजूद इसके, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उसे गिरफ्तार किया गया और जेल भेज दिया गया। इतना ही नहीं, कॉलेज ने बिना उसका पक्ष सुने निष्कासन का आदेश जारी कर दिया, जिससे वह सेमेस्टर के दो पेपर भी नहीं दे पाई।

हाईकोर्ट की तीखी टिप्पणी:
बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस कार्रवाई को लेकर कहा, “ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस और कॉलेज प्रशासन छात्रा की जिंदगी तबाह करने पर आमादा हैं।” कोर्ट ने स्पष्ट किया कि छात्रा कोई अपराधी नहीं है और राज्य की यह कठोर प्रतिक्रिया उसे कट्टरता की ओर धकेल सकती है। कोर्ट ने सवाल उठाया कि जब छात्रा ने गलती स्वीकार कर माफी मांग ली थी, तो क्या उसे सुधार का मौका नहीं दिया जाना चाहिए था?

जल्दबाज़ी में की गई कार्रवाई:
कोर्ट ने पाया कि पुलिस और कॉलेज दोनों ने इस मामले को आपराधिक दृष्टिकोण से देखा और त्वरित कार्रवाई की, जबकि इस उम्र में गलती होना स्वाभाविक है। छात्रा की माफी यही दर्शाती है कि उसने अपनी भूल स्वीकार कर ली थी। कॉलेज प्रशासन यदि चाहे तो छात्रा से संवाद कर मामले को सुलझा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

“दूसरा मौका जरूरी”:
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह उम्र गलतियां कर उन्हें सुधारने की होती है। दुर्भाग्यवश, इस छात्रा को तब तक कोई दूसरा मौका नहीं दिया गया जब तक मामला हाईकोर्ट तक नहीं पहुंचा। पहले मैजिस्ट्रेट कोर्ट ने जमानत याचिका खारिज कर दी और फिर सेशन्स कोर्ट ने सुनवाई की तारीख आगे बढ़ा दी। इस देरी ने छात्रा की पढ़ाई पर भी असर डाला।

संतुलन की मांग:
कोर्ट ने इस केस को व्यापक संदर्भ में देखते हुए कहा कि सोशल मीडिया और राज्य की प्रतिक्रिया – दोनों में संतुलन आवश्यक है। कोर्ट ने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही यह स्पष्ट कर चुका है कि “मोरल पुलिसिंग” न्यायपालिका का काम नहीं है, और यह सोच पूरी न्याय व्यवस्था पर लागू होती है।

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